सोमवार, 9 जनवरी 2017

ये कूड़े की संस्कृति है





चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद
बड़े भाग मानुस तन पावा पर
प्रश्नचिन्ह लगाते हुए
खोली थी उसने आँख
अस्पताल के ठीक पीछे बने
कूड़ा घर में
जहाँ आस -पास ,इधर -उधर
बिखरा पड़ा था
कूड़ा ही कूड़ा ”
जबरन खीच कर निकाले गए कन्या भ्रूण
कुछ सीरिंज प्लास्टिक की बोतलें
पोलिथीन बैग्स
अपशिष्ट पदार्थ
जो भींच कर ह्रदय से लगा लेना चाहते थे उसे
छलक आई थी ममता
जैसे हो वो उसकी संतान
यही कूड़े की संस्कृति है
(२)

नन्ही -नन्ही आँखें
टुकुर -टुकुर ताक रही थी
अपने चारों ओर
नाक पर रूमाल रख कर खड़ी
पत्रकारों की भीड
जिनके लिए थी वो एक खबर
दिल्ली के एक प्रसिद्ध अस्पताल के बाहर कूड़े में फेंकी गयी बच्ची
समाज का विद्रूप चेहरा………. “दोषी कौन ”
इस खबर के छपने से मिले पैसों से शायद कोई लाये
पत्नी के लिए साडी
बेटे की किताबें
या चुकाये पंसारी का बिल
वहीँ बड़े -बड़े कैमरे थामे
तमाम चैनल वाले
जो दिन भर उसका चेहरा टीवी पर दिखायेंगे
कई छोटे -बड़े नेताओं के बीच चलेगी बहस
वामपंथ दक्षिण पंथ चरमपंथ गरमपंथ के बीच
चलेगी गर्मागर्म बहस
बंद करो वैलेंटाइन डे
लिव इन का नतीज़ा है “कूड़े में फेंकी गयी बच्ची ”
नहीं औरतों पर अत्याचार धोखा फरेब का नतीजा
या सामंतवादी सोच
जिसमे एक माँ विवश है अपनी कन्या संतान को
कूड़े में फेंकने के लिए
सब एयर कंडीशन स्टूडियो में बैठ चिल्लाने वाले
प्रतीक्षा करेंगे शायद ……….
शायद किसी बड़े नेता की दृष्टि उन पर पड जाये
या अगले चुनाव का टिकट मिल जाए
बीच -बीच में विज्ञापन कम्पनियां परोस देंगी विज्ञापन
लो कलोरी डाईट के
फेयर नेस क्रीम के और डिओडोरेंट के
इन सब से बेखबर
कहाँ जानती है
माँ के दूध के लिए बिलबिलाती
वो मासूम सी बच्ची
कूड़े में कूड़े की तरह पड़ी
कि वो पाल रही है “कितनों के पेट ”
यही कूड़े की संस्कृति है
(३ )
उसके जन्म को महापाप घोषित करने वाले
पुजारी मौलवी पादरी
अपने -अपने “ईश्वर-आलयों” में बैठ
करेंगे सर -फुटव्वल
उनके धर्म का एक सदस्य कहीं कम न हो जाये
ओवरटाइम का बहाना बना
रेड लाइट एरिआ “में जाने वाला ननकू
टी वी के सामने पापड चबाते हुए
कोसेगा पूरी आदमजात को
बगल में भिन्डी काटती उसकी पत्नी
देगी ईश्वर को धन्यवाद की
उसका पति “ऐसा नहीं है ”
१० बरस से सूनी कोख का दर्द भोगती सुधा
कातर दृष्टि से देखेगी सास को
जो न न ना सोचियो भी ना कहकर
खून के वैज्ञानिक वर्गीकरण झुठलाते हुए
घोषित कर देगी उसे “गंदा खून ”
सुबह की सुर्खियाँ बनी वो बच्ची
शाम तक भुला दी जायेगी पुराने अखबार की तरह
जानती थी शायद जन्मदात्री माँ “इंसानी फितरत को ”
इसीलिए तो फेंक गयी थी कूड़े में
की लोग चीखेंगे -चिल्लायेंगे
कोई पालेगा नहीं उसे
पर कूड़ा ………. पाल ही लेता है कूड़े को
यही कूड़े की संस्कृति है
(४)
सही है !सब फेंक देते हैं कूड़े को घर के बाहर
पर कूड़ा कभी नहीं फेंकता किसी को
समां ही लेता है अपने अन्दर
हर कीच हर गंदगी
हर पाप हर पुन्य
मिल ही गया था उसे एक घर
कूड़े के पास
किसी झुग्गी में
जहाँ कूड़े को बीन- बीन कर खायी जाती थी रोटी
गोल -गोल
बिलकुल आम घरों की तरह
भर ही जाता था पेट
पर अपरिचित ही रहता
डकार का स्वाद
शाम को खेला जाता -मनपसंद खेल
बजबजाते सीवर में
धागे के साथ चुम्बक डाल कर खोजे जाते थे सिक्के
जो तथाकथित साफ़ खून वालों की
गंदगी के साथ समा गए थे नालियों में
यह चंद सिक्के ला देते मुस्कराहट
बेतरतीब बाल और मैले -कुचैले कपड़ों में
कूड़े के साथ कूड़े की तरह बढ़ते इन बच्चों में
यही कूड़े की संस्कृति है
(५)
एक दिन आ ही गया उधर
कूड़े का व्यापारी
गली -गली घुमते हुए
जिसकी तेज पारखी निगाहें
जानती थी
खर -पतवार की तरह बढ़ते हुए
कूड़े को भी
बांटा जा सकता है
लिंग के आधार पर
कि बड़े -बड़े बंगलों महलों से लेकर
रिक्शेवाले खोमचेवाले तक है
कूड़े के खरीदार
हाँ ! बन कर पहली पसंद
चल दी थी उस व्यापारी के साथ
अबोध तरह वर्ष पुराने
कूड़े की बिटिया
अनभिग्य अनजान सी
कि कूड़े की भी लगती हैं बोलियाँ
कुछ ज्यामिति आकारों के
आधार पर
कूड़े के दामों में भी आता है
उतार -चढाव
सफ़ेद और काले रंग से
कच्ची और पक्की उम्र से
यही कूड़े की संस्कृति है
(६ )
अब हो गयी थी उसकी उन्नति
कूड़े से बन गयी थी कूड़ा घर
जो निगलती थी रोज
अपशिष्ट पदार्थ
जलती थी हर रात
अपनी चिता में
दफ़न करती थी
अपने मानवीय अधिकारों को, अरमानों को
हर सुबह सूर्य की लालिमा में
जानती थी
दफनाया या जलाया जाना ही
कूड़े का प्रारब्ध है
अक्सर इस कूड़े को खाकर
बढ़ जाता था उसका उदर
आने लगती थी डकार
मिचलाता था जी
और बढ़ जाता था थोडा सा कूड़ा
किसी मंदिर मस्जिद के प्रागण में
किसी गटर के पास
किसी निर्जन स्थान में
या किसी अस्पताल के पीछे
चाहे कुछ भी कर लो
कूड़ा कूड़े को जन्म देता ही है
यही कूड़े की संस्कृति है
(७ )
कब समझेंगे यह सफ़ेद पोश
जो बड़े -बड़े बंगलों में
आलीशान मकानों में बैठे हैं
जरा रुके ठहरे
अब भी चेत जाये
की उनका क्षणिक उन्माद
जन्म देता रहा है
जन्म देता रहेगा
कूड़े को
और कूड़ा कभी घटता नहीं है
वह बढ़ता जाता है
दिन दूना -रात चौगुना
इतना इस कदर
लीलने लगता है सुख -शांति को
चबा डालता है सभ्यताओं को
इसके नीचे दब कर मर जाते है मानवीय अधिकार
आने लगती है सडांध
मरे हुए जिस्मों की जिन्दा रूहों से
यही कूड़े की संस्कृति है

वंदना बाजपेयी 

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